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मुख्यधारा की मीडिया और विपक्ष की आवाज़: तेजस्वी यादव के बयान पर एक गंभीर विमर्श

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मुख्यधारा की मीडिया और विपक्ष की आवाज़: तेजस्वी यादव के बयान पर एक गंभीर विमर्श

लेखक: नीरज यादव ‘स्वतंत्र’ | आवाज़ न्यूज़

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव ने हाल ही में मुख्यधारा की मीडिया पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि “मीडिया में सामंतवादी विचारधारा के लोग बैठे हैं जो विपक्ष की आवाज़ को नकारते हैं। ऐसे मीडिया संस्थानों का हम बहिष्कार करेंगे।” तेजस्वी यादव का यह बयान भारतीय लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका और पक्षधरता को लेकर एक नई बहस छेड़ता है।

क्या कहता है तेजस्वी यादव का आरोप?

तेजस्वी यादव का इशारा स्पष्ट रूप से उस मीडिया व्यवस्था की ओर है, जिसे वह जनहित के बजाय सत्ता की गोद में बैठा मानते हैं। उनका यह भी कहना है कि जब विपक्ष किसानों, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर सवाल उठाता है, तब उसे ‘नेगेटिव’ या ‘देशविरोधी’ ठहरा दिया जाता है, जबकि सत्ताधारी पक्ष के हर बयान को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है।

सामंतवादी विचारधारा का आरोप कितना गंभीर है?

“सामंतवादी” शब्द का उपयोग केवल वर्ग भेद के संदर्भ में नहीं, बल्कि विचार और सोच में एक विशेष प्रकार की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति को इंगित करता है। तेजस्वी का यह कहना कि मीडिया में बैठे कुछ शक्तिशाली लोग अपने एजेंडे के अनुसार जनता को सूचना देते हैं, इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

यदि मीडिया केवल कुछ वर्ग विशेष या सत्ता पक्ष के हितों की बात करेगा, तो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ खुद ही अपने अस्तित्व को खोने लगेगा।

मीडिया की निष्पक्षता पर सवाल क्यों उठते हैं?

पिछले कुछ वर्षों में यह व्यापक रूप से देखा गया है कि कई मीडिया संस्थानों ने विपक्ष की बातों को सीमित स्थान दिया, या फिर उन्हें सवालों के घेरे में ही पेश किया। टीवी डिबेट्स में विपक्षी नेताओं की आवाज़ को दबाने की प्रवृत्ति, तथ्य आधारित रिपोर्टिंग के बजाय सनसनीखेज और ‘TRP’ केंद्रित रिपोर्टिंग ने मीडिया की साख पर गहरा असर डाला है।

बहिष्कार की चेतावनी का क्या असर होगा?

तेजस्वी यादव ने जिस “बहिष्कार” की बात की है, वह केवल टीवी चैनल्स को न देखकर नहीं, बल्कि उन संस्थानों से संवाद बंद करके उन्हें जनता के बीच बेनकाब करने की रणनीति का हिस्सा हो सकती है। हालांकि, इससे मीडिया संस्थान के रुख में बदलाव आएगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है। लेकिन इतना निश्चित है कि इस बहिष्कार से एक वैकल्पिक मीडिया आंदोलन को बल मिल सकता है, जहां जनता की आवाज़, ज़मीनी सच्चाई और विपक्ष की भूमिका को ईमानदारी से स्थान दिया जाएगा।

क्या यह मीडिया के पुनर्मूल्यांकन का समय है?

इस पूरे मुद्दे पर सबसे अहम सवाल यह है कि क्या अब समय नहीं आ गया है कि मीडिया स्वयं आत्मनिरीक्षण करे? क्या टीआरपी, कॉरपोरेट हित और राजनीतिक दबाव से ऊपर उठकर पत्रकारिता को उसकी मूल भूमिका में वापस लाने की जरूरत नहीं है?

तेजस्वी यादव का बयान कोई साधारण राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि भारतीय मीडिया की वर्तमान स्थिति पर एक गंभीर टिप्पणी है। अगर यह आवाज़ केवल विरोध का हिस्सा बनकर रह जाती है, तो मीडिया अपनी विश्वसनीयता और लोकतंत्र अपनी मजबूती, दोनों खो सकते हैं। जरूरत है कि जनता, पत्रकार और मीडिया संस्थान – सभी मिलकर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करें और एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और जनोन्मुखी मीडिया की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ें।

आपकी राय क्या है? क्या आपको लगता है कि आज की मीडिया विपक्ष को न्यायसंगत तरीके से स्थान दे रही है? कमेंट करके अपनी राय साझा करें।

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