
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि राज्य सरकारें राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा विधानसभा से पारित विधेयकों पर लिए गए फैसलों के खिलाफ अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर नहीं कर सकतीं, भले ही उनका दावा हो कि इससे लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ के सामने यह दलील दी, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा, और अतुल एस चंदुरकर शामिल हैं। केंद्र का कहना है कि राज्य सरकारें स्वयं मौलिक अधिकारों की धारक नहीं हैं; उनकी भूमिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है।
मेहता ने संविधान के अनुच्छेद 361 का हवाला देते हुए कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किसी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। उन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए संदर्भ का जिक्र किया, जिसमें पूछा गया है कि क्या राज्य सरकारें ऐसी याचिकाएं दायर कर सकती हैं और क्या कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है। केंद्र ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 32 नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए है, न कि राज्यों के लिए, और कोर्ट न तो विधेयकों की सामग्री की जांच कर सकता है और न ही राष्ट्रपति के विवेकाधिकार में हस्तक्षेप कर सकता है।
सीजेआई की टिप्पणी: विधेयक लंबित रखना ठीक नहीं
चीफ जस्टिस गवई ने कहा कि राज्यपाल का विधेयक को छह महीने तक लंबित रखना उचित नहीं है। उन्होंने सवाल उठाया कि यदि विधानसभा दोबारा विधेयक पारित कर देती है, तो क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति इसे अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं? सीजेआई ने यह भी पूछा कि अगर कोर्ट कोई मामला 10 साल तक लंबित रखे, तो क्या राष्ट्रपति उसे निर्देश दे सकते हैं? कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 के फैसले का जिक्र किया, जिसमें तमिलनाडु मामले में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर फैसला लेने की समयसीमा तय की गई थी, जिसमें राष्ट्रपति को तीन महीने और राज्यपाल को एक महीने का समय दिया गया था।
राज्यपाल की शक्तियों पर बहस
सुनवाई में केंद्र ने कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयक रोकने या मंजूरी देने का विवेकाधिकार है, और कोर्ट इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। सॉलिसिटर जनरल ने बताया कि मनी बिल के लिए राज्यपाल की अनुशंसा जरूरी होती है, इसलिए उसे रोकने का सवाल नहीं उठता। हालांकि, कोर्ट ने चिंता जताई कि यदि राज्यपाल मनी बिल जैसे महत्वपूर्ण विधेयकों को भी रोक सकते हैं, तो यह संवैधानिक संकट पैदा कर सकता है।
महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, गोवा, छत्तीसगढ़ और हरियाणा जैसे राज्यों ने भी केंद्र का समर्थन करते हुए कहा कि कोर्ट को समयसीमा थोपने का अधिकार नहीं है। वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने महाराष्ट्र की ओर से दलील दी कि विधेयकों को स्वीकृति देना राज्यपाल और राष्ट्रपति का विशेषाधिकार है।
राष्ट्रपति का संदर्भ और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई 2025 में अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी कि क्या कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधेयकों पर समयसीमा में फैसला लेने का निर्देश दे सकता है। कोर्ट इस संदर्भ पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें तमिलनाडु और केरल सरकारों ने राज्यपालों की निष्क्रियता के खिलाफ याचिकाएं दायर की थीं। कोर्ट ने पहले 10 विधेयकों को अनुच्छेद 142 के तहत स्वीकृत मान लिया था, जिसे केंद्र ने विवेकाधिकार में हस्तक्षेप बताया।
चल रही सुनवाई और सवाल
सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लटकाते हैं, तो क्या कोई उपाय नहीं है? कोर्ट ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने उम्मीद की थी कि राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच सामंजस्य होगा, लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं हो रहा। सुनवाई में केंद्र ने राजनीतिक समाधान पर जोर दिया, जैसे मुख्यमंत्री का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से संवाद, लेकिन कोर्ट ने इसे अपर्याप्त माना। सुनवाई अभी जारी है, और कोर्ट जल्द ही इस मुद्दे पर अंतिम राय दे सकता है।
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